मैं आज रात भी जागा सा हूँ
उन तारों के शामियाना सा हूँ
अखेले बेदाग़ चाँदनी को खोजते हुए
अमावस्या के चाँद सा ग़ुम हूँ
क्या मैं आज भी पहले जैसा हूँ?
हाँ कभी उन तारों से टूटा था
और यूँ ही आसमान में ग़ुम सा था
न ठिकाना था ना ही कोई इरादा
सुनसान से आसमान में खोया सा था
दूर जलता हुआ सूरज भी उम्मीद दे रहा था
पर अब जागने का भी क्या फायदा था।
अचानक से झटका लगा
सब धुंधला सा हो गया
आँखें भी खुली सी थी
पर नज़रो का इंतेक़ाल हो गया
मशरूफ़ नब्ज़ भी थम सी गयी थी
धड़कने भी ग़ुम सी थी
अपनों की चींखें भी थी
और गैरों की हिदायतें भी
कोई मुंतजिर बने हुए था
कोई मुंतज़िर बनने को था
अब जागने का भी क्या फायदा
जब अपनो ने ही गैरों की तरह छोड़ा था।
ख्वाब जो पिरोये थे आज टूट के बिखर से गए
तारों से सजे शामियानों में वो कुछ रूठ से गए
मनाना भी था तो किसे मनाए ऐ खुदा
वो तो आसमान में उड़ा के कटी पतंग सा छोड़ से गए।
~प्रफुल्ल माहेश्वरी
उन तारों के शामियाना सा हूँ
अखेले बेदाग़ चाँदनी को खोजते हुए
अमावस्या के चाँद सा ग़ुम हूँ
क्या मैं आज भी पहले जैसा हूँ?
हाँ कभी उन तारों से टूटा था
और यूँ ही आसमान में ग़ुम सा था
न ठिकाना था ना ही कोई इरादा
सुनसान से आसमान में खोया सा था
दूर जलता हुआ सूरज भी उम्मीद दे रहा था
पर अब जागने का भी क्या फायदा था।
अचानक से झटका लगा
सब धुंधला सा हो गया
आँखें भी खुली सी थी
पर नज़रो का इंतेक़ाल हो गया
मशरूफ़ नब्ज़ भी थम सी गयी थी
धड़कने भी ग़ुम सी थी
अपनों की चींखें भी थी
और गैरों की हिदायतें भी
कोई मुंतजिर बने हुए था
कोई मुंतज़िर बनने को था
अब जागने का भी क्या फायदा
जब अपनो ने ही गैरों की तरह छोड़ा था।
ख्वाब जो पिरोये थे आज टूट के बिखर से गए
तारों से सजे शामियानों में वो कुछ रूठ से गए
मनाना भी था तो किसे मनाए ऐ खुदा
वो तो आसमान में उड़ा के कटी पतंग सा छोड़ से गए।
~प्रफुल्ल माहेश्वरी